संदेश

जून, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"दास्तान"

चित्र
दास्तान पुरुषप्रधान में जब मैं जन्मी , व्याकुल जनमत अब क्या करनी।  क्षुब्ध विचार से प्लावित मन था , कचरे में मेरा जीवन था।  स्नेहमयी इक जोड़ा सुन्दर , पर अभाग्य से टूट रहा था।  संतान न होने का प्रबल दुःख , उनको पल-पल ठेस रहा था।  करुणाई आँखे थी उनकी, मुझे किया ह्रदय पर शोभित।  कचरा जैसे अन्नपूर्णा, पूरी हुई मनोकामना।  नहला-धुला मुझे उन्होने, संतान मानकर पाला था।  पढ़ा-लिखाकर हर खुशी देकर , बेटा मानके पाला था।  मेरा केवल एक ही प्रण था, मैं कचरा साफ करुँगी।  लोगों को बाहर और भीतर, मन से चमका दूँगी।  ताकि कोई जीव पुनः फिर, कचरे के ढ़ेर में न पले।  जो मैंने किया उसी राह पर , आगे बढ़े, सब साथ चले।  ~अतुल कुमार शर्मा~

"मैं कुछ कहना चाहता हूँ ……"

चित्र
 मैं कुछ कहना चाहता हूँ तेरी झुकी हुई नज़रो को देखकर  शर्मिन्दा हम हुए , इस बात से ख़फ़ा है  'आदर्श' बन बैठे हम आपके लिए  फिर भी जुदा हम हुए। हर अदाओं से वाखिफ है हम आपकी और आप हमारी ना जाने खुदा ने क्या चाहत की ना आप ही हमे मिले और ना हम ही …… । दास्तानों से हम दोस्ताना ना भूले रह - रहके हर लम्हा याद किया इनको लेकर , बात जो सच्ची थी वो कह ना सके अनचाही बातों से लबरेज़ ज़ुबान लेकर भूले। इन्तज़ार है उस आस का जो दूर नहीं या पास है आलम नहीं है जनता वो खास है खास है पर ना पास है , ख़्वाहिश यही है कह दूँ  जो चाहता हूँ बोल दूँ अब ना अटकू  मैं,  अब ना भटकूँ मैं , 'आदर्श' हूँ 'आदर्श' ही बनूँ  मैं।  ~अतुल कुमार शर्मा~