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ऐ "मंजिल के मुसाफ़िर" ऐ "मंजिल के मुसाफ़िर" ज़रा रुक... ठहर... थमजा थोड़ा सब्र कर ज़रा सोच तू कर क्या रहा है ? कहाँ बढ़ रहा है ? किस और जा रहा है ? क्या तू वही सब कर रहा है जो तूने सफ़र की शुरूआत में सोचा था ? तब्दीली आ रही है ना ? तेरी सोच में, दिनों-दिन जैसे-जैसे तू मंज़िल की और बढ़ रहा है। मुझे पता है अब कुछ संगी-साथी तेरे साथ नहीं है जो कल तेरे बहुत करीब हुआ करते थे। तूने अपनों को पराया और परायों को अपना तक बनाया है इस मंज़िल की होड़ में। कुछेक तुझे पागल समझते है कुछेक नालायक समझते है हालांकि तू ये सब सहता है क्योंकि तू जानता है, तू असलियत में क्या है। तुझे अब किसी और की परवाह नहीं है सिवाय अपनी मंज़िल के जो तेरे पास "तक" नहीं है। में तेरे आत्मविश्वास को मद्धम नहीं करूँगा न ही तेरी प्रगति में अवरोध का कांटा बनूँगा मैं तो खुद तेरे साथ चलने वाला एक "मुसाफ़िर" हूँ। बस, मैंने मंज़िल की आड़ में रिश्तों को दफ़न नहीं किया अपनी भावनाओं को भी कभी पाबंद नहीं किया।  मैं