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शाख से पत्ते का टूट जाना जरुरी था

शाख से पत्ते का टूट जाना जरुरी था  नया आना जरुरी था, उसका जाना जरुरी था मुझे हासिल हुई ख़ुशी की खबर सबको तो न थी  ग़म-ए-गुलज़ार था मैं तो, उसका हँसना जरुरी था ये मेरे रास्ते में आने वाले काँटों की सोहबत थी  उनको चुभना जरुरी था, लहू चखना जरुरी था  अमीर तो था ही में लेकिन गरीबी फिर भी सर पर थी  मयस्सर भी तो दौलत थी, मोहब्बत भी जरुरी थी फ़क़त हालत का मारा हुआ होता तो बात क्या थी  निग़ाह-ए-यार ने मारा, तो मरना भी जरुरी था  ~~ अतुल कुमार शर्मा ~~

सहर्ष स्वीकार

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"सहर्ष स्वीकार" उस अभेद्द भीड़ में विपरीतता का सामना करते हुए  अनगिनत अनजान चेहरों को अपनी तरफ आते देख  मैं अपना रास्ता नहीं बदलता  विपरीतता का आलिंगन करने वाला मैं  इसे "सहर्ष स्वीकार" करता हूँ।  किसी चीज़ को घूरे बगैर  केवल अपनी आँखों को तरेरते हुए  मैं महसूस करता हूँ अनगिनत भावनायें  जो अनकही सी मुझे आकर्षित करती है  विपरीतता का आलिंगन करने वाला मैं  इसे "सहर्ष स्वीकार" करता हूँ। अनेक सजीव और निर्जीव चीज़ों से घिरा  मैं वहाँ अकेला जन्तु नहीं  जो सम्भावनाअों के मौसम में उपलब्धियाँ याद करता है  अपने मार्ग का स्वयं पथ-प्रदर्शक  विपरीतता का आलिंगन करने वाला मैं  इसे "सहर्ष स्वीकार" करता हूँ। ~~ अतुल कुमार शर्मा ~~
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ऐ "मंजिल के मुसाफ़िर" ऐ "मंजिल के मुसाफ़िर" ज़रा रुक... ठहर... थमजा थोड़ा सब्र कर ज़रा सोच तू कर क्या रहा है ? कहाँ बढ़ रहा है ? किस और जा रहा है ? क्या तू वही सब कर रहा है जो तूने सफ़र की शुरूआत में सोचा था ? तब्दीली आ रही है ना ? तेरी सोच में, दिनों-दिन जैसे-जैसे तू मंज़िल की और बढ़ रहा है। मुझे पता है अब कुछ संगी-साथी तेरे साथ नहीं है जो कल तेरे बहुत करीब हुआ करते थे। तूने अपनों को पराया और परायों को अपना तक बनाया है इस मंज़िल की होड़ में। कुछेक तुझे पागल समझते है कुछेक नालायक समझते है हालांकि तू ये सब सहता है क्योंकि तू जानता है, तू असलियत में क्या है। तुझे अब किसी और की परवाह नहीं है सिवाय अपनी मंज़िल के जो तेरे पास "तक" नहीं है। में तेरे आत्मविश्वास को मद्धम नहीं करूँगा न ही तेरी प्रगति में अवरोध का कांटा बनूँगा मैं तो खुद तेरे साथ चलने वाला एक "मुसाफ़िर" हूँ। बस, मैंने मंज़िल की आड़ में रिश्तों को दफ़न नहीं किया अपनी भावनाओं को भी कभी पाबंद नहीं किया।  मैं

"उम्मीद"

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उम्मीद जीवन मैं कुछ कर  गुजरने का अहसास ... जब बुझती लौ भी रोशनी देने लगे  जब अनकही बातें मुँह को आने लगे  जब डूबे पानी में , और साँस भरने का मन करे  जब अहसास हो अस्त होने का वो पुनः उदय कर दे  उस अहसास को मैं क्या नाम दूँ? जो जग आधार बना है , सभी उस पर  टिके है  तन्हाई जब होती है , सहारा उसी का लेते है  किंकर्त्यविमूढ़ावस्था में जो कर्तव्य ज्ञान दिलाये  वह अहसास जो बार-बार मन को भाये  उस अहसास को मैं क्या नाम दूँ? अनेको  प्रश्नों का केवल  विकल्प बने  जो उसे हासिल करे मंजिलो  चढ़े  आँगन  की नीच से आकाश की ऊँच तक अहसास सीढ़ियाँ बने वो राह-ए-कूच तक  उस अहसास को मैं क्या नाम दूँ? अनंत, अबाध्य, आक्रामक, अचानक पास  इन सभी का सम्मिश्रण है यह अहसास  इस अहसास का नाम मैंने खोज लिया है  इसे मैं ही नहीं रखता , सभी ने लिया है।  ... यह कभी ख़त्म नहीं होगा।  ~अतुल कुमार शर्मा~   

"मैं कब था"

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मैं कब था जब मैं पुरानी यादों से टकरा जाता हूँ भविष्य की कल्पना और  वर्तमान की उपलब्धियों को लेकर  मैं गर्वित हो उठता हुँ  कुछ और बेहतर करने के लिये। उन ऊँचाइयों से कोई मुझे पुकार रहा है मुझे जाना है वहाँ, उसे हासिल करना है वहाँ पहुँचने को सीढ़ियाँ नहीं है कोई रास्ता हो यह भी तय नहीं है पर मुझे कोई ग़म नहीं है। धनी हूँ मैं कल्पनाओं से, आशाओं से, हौसलों से जो हमेशा उन्मुक्त है वे रास्ता तय करवायेंगे, साथ मैं सीढ़ियाँ भी मुझे बस चलना है, रुकना नहीं है मैं रुका तो "मैं कब था" फिर नहीं थी पुरानी यादें, भविष्य की कल्पना और वर्तमान की उपलब्धियाँ।  ~अतुल कुमार शर्मा~

"हकीकत"

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हकीकत इन्सानियत के चोले का फटा हुआ किनारा  तलाश रहा है किसी रफ़ूगर को  मरम्मत की जरुरत है इसको  ताकि इन्सानियत अपनी सीमा पार न कर सके।  संकीर्ण अलंकरण को देखकर  संकीर्णता व्याप जाती है मन में  काश ज़िस्म को पाने की तलाश में  रूह की प्यास मिल सकें।  दुःख नहीं मुझे आश्चर्य होता है  मानवीय आंकलन पर  तड़प को नकारने की अदम्य  कला  आखिर खुद तड़प कर सह सके।  जिस्मानी रिश्तों की आड़ में  मानवीयता रौंदता है  तू भी जना है औरत से  रहम कर दे गर कर सके।  ~ अतुल कुमार शर्मा ~

"उत्थान"

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उत्थान वे रोते हैं बड़ी तड़प से लेकिन चुपचाप , यह सोचकर की कोई उनकी मज़बूरी का मज़ाक न बना दे। उनकी भाषा दर्द की लिपि में तथा राष्ट्रीय है फिर भी हम बेखबर हैं, शायद अपने आप से ही हो करार देता है यह अहहास दुर्बलतम हमें। स्वयं ही जीना सीख लिया है और लड़ना भी, क्योंकि हमारे हथियारों को तो जंग लग चुकी है साथ मे दिमाग भी जमा सा प्रतीत होता है। तरस खाकर आप उन्हें, भीख न दें उनका आत्मसम्मान भी तो है , हमसे भी बढ़कर उन्हें मात्र जीवन चाहिये पहचान का अवसर देना है उन्हें, तब हमारा उत्थान होगा उनके हाथों।  ~अतुल कुमार शर्मा~