"दास्तान"

दास्तान पुरुषप्रधान में जब मैं जन्मी , व्याकुल जनमत अब क्या करनी। क्षुब्ध विचार से प्लावित मन था , कचरे में मेरा जीवन था। स्नेहमयी इक जोड़ा सुन्दर , पर अभाग्य से टूट रहा था। संतान न होने का प्रबल दुःख , उनको पल-पल ठेस रहा था। करुणाई आँखे थी उनकी, मुझे किया ह्रदय पर शोभित। कचरा जैसे अन्नपूर्णा, पूरी हुई मनोकामना। नहला-धुला मुझे उन्होने, संतान मानकर पाला था। पढ़ा-लिखाकर हर खुशी देकर , बेटा मानके पाला था। मेरा केवल एक ही प्रण था, मैं कचरा साफ करुँगी। लोगों को बाहर और भीतर, मन से चमका दूँगी। ताकि कोई जीव पुनः फिर, कचरे के ढ़ेर में न पले। जो मैंने किया उसी राह पर , आगे बढ़े, सब साथ चले। ~अतुल कुमार शर्मा~